हाल ही में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री ई. पलानीस्वामी ने नई शिक्षा नीति 2020 में प्रस्तावित त्रिभाषा नीति (थ्री लैंगुएज पॉलिसी) का विरोध करते हुए कहा है कि तमिलनाडु में नई त्रिभाषा नीति लागू नही की जाएगी राज्य में द्विभाषा नीति ही लागू रहेगी। इसलिए उन्होंने केंद्र सरकार से नई भाषा नीति पर पुनः विचार करने का आग्रह किया। यह नई पॉलिसी उस थ्री लैंग्वेज फॉर्मूले का लचीला रूप है जिसमें हिंदी को पूरे भारत में पढ़ाया जाना अनिवार्य बनाने को लेकर प्रयास किए जा चुके हैं; आइए समझने की कोशिश करते हैं कि थ्री लैंग्वेज फॉर्मूला क्या है और क्यों दक्षिण भारतीय राज्य इसका पिछले कई दशकों से लगातार विरोध कर रहे हैं।
इस फॉर्मूले को समझने से पूर्व हमें संविधान के अनुच्छेद 351 को पढ़ना होगा जो हिंदी भाषा के संबंध में है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 351 का शीर्षक है "हिन्दी भाषा के विकास के लिए निदेश"
यह अनुच्छेद कहता है कि "संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिन्दी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करे जिससे वह भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके और उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिन्दुस्तानी में और आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट भारत की अन्य भाषाओं में प्रयुक्त रूप, शैली और पदों को आत्मसात करते हुए और जहाँ आवश्यक या वांछनीय हो वहाँ उसके शब्द-भंडार के लिए मुख्यतः संस्कृत से और गौणतः अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करे"
इस अनुच्छेद से यह निश्चित होता है कि हिंदी भाषा को सभी भारतीय भाषाओं के लिए एक संपर्क भाषा के रूप में विकसित करने हेतु केंद्र सरकार संवैधानिक रूप से प्रयास करने हेतु बाध्य है। फिलहाल संपूर्ण भारत में आपसी संपर्क के लिए अंग्रेजी भाषा का इस्तेमाल होता है।
इसलिए हिंदी को राष्ट्रीय स्तर पर फैलाने हेतु इसे अनिवार्य बनाना आवश्यक हो जाता है लेकिन भारत में भाषीय विविधता है जिसे देखते हुए अन्य भाषाओं को भी नकारा नही जा सकता इसलिए थ्री लैंग्वेज फॉर्मूला अस्तिव में आया।
एक से अधिक भाषाएं सीखने से बच्चे का संज्ञानात्मक विकास तो होता ही है साथ ही थ्री लैंग्वेज फॉर्मूले के जरिए भारत की विविधता को बनाए रखने वाले बहुभाषावाद तथा राष्ट्रीय सद्भाव को भी बढ़ावा मिलता है।
इसलिए वर्ष 1961 से ही थ्री लैंग्वेज फॉर्मूले के संबंध में राज्यों के मुख्यमंत्रियों से विचार विमर्श होने लगा तथा वर्ष 1968 की शिक्षा नीति में थ्री लैंग्वेज फॉर्मूला सामने आया। थ्री लैंग्वेज फॉर्मूले के अंतर्गत प्रत्येक राज्य में तीन भाषाएं पढ़ाई जानी अनिवार्य की गई।
पहली भाषा : छात्रों की मातृभाषा या राज्य की क्षेत्रीय भाषा होगी।
दूसरी भाषा : हिंदी भाषी राज्यों में अंग्रेजी या आधुनिक अन्य आधुनिक भारतीय भाषाओं में से एक होगी तथा गैर-हिंदी भाषी राज्यों में हिंदी या अंग्रेजी में से एक होगी।
तीसरी भाषा : हिंदी भाषी राज्यों में अंग्रेजी या अन्य आधुनिक भारतीय भाषाओं में से एक होगी (जो दूसरी भाषा के रूप में ना चुनी गई हो) तथा गैर हिंदी भाषी राज्यों में अंग्रेजी या अन्य आधुनिक भारतीय भाषाओं में से एक होगी (जो दूसरी भाषा के रूप में ना चुनी गई हो)
इस फॉर्मूले में हिंदी भाषी क्षेत्रों में हिंदी और अंग्रेजी के अलावा एक आधुनिक भारतीय भाषा को पढ़ाया जाना अनिवार्य किया गया। आधुनिक भारतीय भाषाओं में बांग्ला, तमिल, तेलुगू, कन्नड़, असमिया, मराठी, पंजाबी तथा अन्य भाषाएं शामिल हैं।
ठीक ऐसे ही गैर-हिंदी भाषी क्षेत्रों में वहां की स्थानीय भाषा के साथ हिंदी तथा अंग्रेजी को पढ़ाया जाना अनिवार्य किया गया।
इस प्रकार हिंदी के प्रसार तथा अन्य भाषाओं के वर्चस्व को बरकरार रखे जाने का संयुक्त रास्ता खोजा गया।
लेकिन समस्या तब आई जब हिंदी भाषी क्षेत्रों में हिंदी और अंग्रेजी के अलावा तीसरी भाषा के रूप में संस्कृत को पढ़ाया जाने लगा जिसे विद्वानों द्वारा आधुनिक भारतीय भाषा मानने से इनकार कर दिया गया तथा साथ ही दक्षिण भारत के राज्यों द्वारा हिंदी को अनिवार्य बनाने को लेकर विरोध किया गया।
इस फॉर्मूले के अंतर्गत तमिलनाडु, पुडुचेरी और त्रिपुरा जैसे राज्य हिंदी सिखाने के लिए तैयार नहीं थे और हिंदी भाषी राज्यों ने अपने स्कूल के पाठ्यक्रम में किसी भी दक्षिण भारतीय भाषा को शामिल नहीं किया।
राज्यों के पास थ्री लैंग्वेज फॉर्मूले को लागू करने के लिए प्राप्त संसाधनों की भी कमी है जो इसे लागू किए जाने की राह में एक बड़ी बाधा बनी।
राज्यों के अनुसार भाषा का चुनाव राज्यों व छात्रों का निजी अधिकार होना चाहिए कोई भी भाषा किसी पर थोपी नही जानी चाहिए। इसीलिए हिंदी या अन्य किसी भाषा की अनिवार्यता को समाप्त करते हुए कोई भी तीन भाषाएं चुनने की आजादी दी जाए।
अभी हाल ही में जो नई शिक्षा नीति 2020 लागू की गई है उसमें थ्री लैंग्वेज फॉर्मूले को लचीले रूप में लागू किया गया है। जिसके तहत छात्रों को कोई भी तीन भाषाएं चुनने का अधिकार है तथा छठी कक्षा में बच्चों को मातृभाषा के अतिरिक्त दो अन्य भाषाएं पढ़ाई जानी अनिवार्य की गई हैं लेकिन इन्हें चुनने की आजादी है आठवीं अनुसूची में शामिल भाषाओं में से किसी भी भाषा को चुनने के लिए विद्यार्थी स्वतंत्र है। इसमें केवल हिंदी को चुने जाने की बाध्यता समाप्त कर दी गई है। लेकिन इसे भी तमिलनाडु राज्य के नेता अपनाने को तैयार नही हैं तथा अपनी द्विभाषीय नीति पर ही कायम रहना चाहते हैं जिसमें तमिल तथा अंग्रेजी ही अनिवार्य रूप से पढ़ाई जाती है।
इसलिए संभवतः ही थ्री लैंग्वेज फॉर्मूले को लागू किए जाने से संबंधित अधिकार राज्यों को दिए जाने को लेकर विचार किया जा सकता है।