छायावाद (1918-1936) हिंदी कविता के इतिहास का प्रसिद्ध आंदोलन है। छायावाद की काव्य धारा में कल्पना, मानवीकरण, प्रकृति प्रेम, नारी प्रेम तथा भावन्मुक्त की प्रधानता है। छायावाद का युग हिंदी साहित्य के चौथे भाग आधुनिक काल में भारतेंदु युग (1868-1900) तथा द्विवेदी युग (1900-1918) के बाद आया। छायावाद के स्पष्ट अर्थ को लेकर हिंदी साहित्य के विद्वान एकमत नही है।
आचार्य शुक्ल तथा डॉ. रामकुमार वर्मा छायावाद को रहस्यवाद से जोड़ते हैं तो वहीं डॉ. नागेंद्र इसे स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह बताते हैं। छायावादी कविताओं की रचना द्विवेदी युग की नीरस तथा इतिवृत्तात्मक कविताओं के विरोध में की गई थी। क्योंकि उस दौर का कवि समाज सुधारों की चर्चाओं से भरी द्विवेदी काल की कोरी उपदेशात्मक कविताओं के नीरसपन से ऊब गया था इसलिए छायावाद में कविताएं इतिवृत्तात्मकता (वस्तुओं के विवरण) को छोड़ कल्पना लोक में विचरण करने लगी।
छायावाद काव्य धारा की सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि इसके बाद बृजभाषा हिंदी की काव्य धारा से बाहर हो गई तथा हिंदी खड़ी बोली गद्य व पद्य दोनों की भाषा बन गई। इससे पूर्व भक्तिकाल तथा रीतिकाल में बृजभाषा को केंद्र में रख कर काव्य रचना की जाती थी। जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, सुमित्रानंदन पंत तथा महादेवी वर्मा छायावाद के चार स्तंभ माने जाते हैं।
छायावाद को साहित्यिक खड़ी बोली का स्वर्णयुग कहा जाता है। छायावाद के नामकरण का श्रेय मुकुटधर पांडेय को दिया जाता है, उन्होंने अपने निबंधों में छायावाद की पाँच विशेषताओं का वर्णन किया है - वैयक्तिकता, स्वांतत्र्य चेतना, रहस्यवादिता, शैलीगत वैशिष्ट्य तथा अस्पष्टता।
मुकुटधर पांडेय की कविता "कुररी के प्रति" को छायावाद की प्रथम कविता माना जाता है। इस प्रकार सयुंक्त रूप से छायावाद में जिन तत्वों को झलक व प्रधानता दिखाई देती है वे हैं - वैयक्तिकता (यानी भावों को खुलेआम व्यक्त करना), मानवीकरण, अनुभूति की प्रतिष्ठा, जिज्ञासा, प्रकृति चित्रण (जिसके बिना छायावाद प्राणहीन है), श्रृंगारिकता, रहस्यवाद, स्वच्छंदतावाद, दुख, वेदना, करूणा, निराशा, नारी प्रेम, सौंदर्य चेतना, प्रेमानुभूति, स्वतंत्रता की चेतना, देश प्रेम, राष्ट्रीय भावना, आदर्शवाद, प्रतीकात्मकता, चित्रात्मक भाषा, लाक्षणिक पदावली तथा मुक्त छंद कविताएं।